Wednesday, 2 October 2013

पितृपक्ष में मां की याद



पितृपक्ष में मां की याद
*    शेर सिंह

हृदय से मां की तस्‍वीर मिटती नहीं
घर में अब मां की आवाज गूंजती नहीं ।

छिप गई है मां दूर बादलों के पार
निगाहें फिर भी मां को ढूंढ़ती हैं बार-बार ।

धुआंते चूल्‍हे पर खाना बनाती, आंखें पौंछती मां
याद आती है बहुत,  पर अब वो तस्‍वीर कहां ।

जहां - ज‍हां जाऊं मां हमेशा साथ होती है
यह अनुभूति हमेशा मेरा साथ देती है ।

भावों से भरा भारी मन, क्‍लांत तन मेरा
स्‍मरण करता हूं तब सौम्‍य, धैर्यवान मुख तेरा ।

चल तो पड़ा हूं शहर से गांव की ओर
लेकिन नदारद है वो अधीरता, वो लहू में जोर । 

¨      के. के.- 100, कविनगर
                                                 गाजियाबाद - 201 002
                                                    E Mail: shersingh52@gmail.com
                                                   Mob.No.08447037777
29.09.13



Monday, 8 July 2013

उत्‍तराखण्‍ड में त्रासदी




उत्‍तराखंड में त्रासदी

  • शेर सिंह

उम्र   कट  गई  साधने   में                     

फिर भी नाकाम रहे जानने में ।


                         

हर तरह से लगे रहे रिझाने में

पर नहीं सफल हुए मनाने में



हादसों के मंजर रह गए देखते

वर्षों  लगेगे  अब  भुलाने में



ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, विवेक रह गए धरे

प्रकृति ने मिनट नहीं लगाया मिटाने में ।



अब  जुटे  रहो  जानने  में

पत्‍थर  से  सिर फोड़ने   में ।



डेम, बिजली, उन्‍नति बह गए पानी में

कहां चूक हुई लगे रहो अब सोचने में ।



सब बरवाद अब व्‍यस्‍त मातम मनाने में

अब तो चेतो योजना बनाने में ।



लाशों पर तेज राजनीति करने में

विकृत बुद्धि वाले लांछन लगाने में ।



अभागे जनों की कीमत भुनाने में

राजनैतिक तरकश से तीर चलाने में ।

  •                    
  •                    शेर सिंह

                                                   के. के.- 100, कविनगर,

        गाजियाबाद - 201 002          (23.06.2013)
 

Thursday, 13 June 2013

यायावर




यायावर
*      शेर सिंह

अरे यायावर !
यह क्‍या ?
कैसी राह पकड़ी
कि -
अबाध गति से प्रवाहित
पहाड़ी नदी की
खुली, पारदर्शी
छाती को छोड़
अथाह गहराई वाले
अरब सागर के
इस महा जलकुंड की
छाती पर
डोलती, डगमगाती अग्निवोट
की खर- खर
स्‍वर लहरी के संग
खारे छींटों को
लूणी पवन के
रूमाल से पौंछते
अंतर के
सुप्‍त भावों को
अंदोलित करने की सोची !
(छात्र काल के दौरान सत्‍तर के दशक के शुरूआती वर्ष में मुंबई की अपनी प्रथम यात्रा के अवसर का भाव चित्रण)

Wednesday, 12 June 2013

पोर्ट ब्‍लेयर



कुछ दिन दफ्तर के माहौल से दूर
खुली हवा में सांस लेने का अवसर भरपूर ।













शहर से दूर शहर की भ‍ीड़ से दूर

सच और ईमान से रूबरू का अहसास भरपूर ।

सुना, जाना पहचाना, चर्चित नाम काला पानी
आया मैं भी जानने सेल्‍युलर जेल की जुबानी ।

नीला अंबर, हरा, नीला समंदर
अनूठे पोर्ट ब्‍लेयर का नजारा सुंदर ।

तैरते जहाज, दौड़ती किश्तियां और उठती लहरें
पुलकित तन, मन इन नावों, लहरों के संग तैरे ।

कहानियां, किस्‍से सुने अनसुने अनेक
बहुरंगी, मनोहारी, अछूते दृश्‍य एक से एक ।  


·          के. के.- 100 कविनगर
                                                          ·  गाजियाबाद - 201 002                                                           

       E Mail: shersingh52@gmail.com